डॉ. गुरिन्दरपार सिंघ जोशन
वीरता सदियों तक याद रखी जाती है इसलिए इन्हें कहानियों में ढाल कर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाना जरूरी है

डॉ. जोशन मेरा सब से पहला सवाल तो यही है कि भारत से अमरीका के सफर का आरम्भ कैसे हुआ और ये सफर अभी भी कैसा चल रहा हैं ?
डॉ मंजू सन 1997 की बात है लॉस एंजल्स में अक्टूबर महीने में एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता थी। भारत से हमारी भी टीम वहां गई थी। प्रतियोगिता के दौरान ही वहां पर अमरीका की सिख ऑर्गनिज़शन से जब मेरी मुलाकात हुई तब उन्होंने कहा कि आप यहीं रुकिए। जैसे आप मार्शल आर्ट सिखाते हो SGPC के सभी स्कूलों और कॉलेज को तो वैसे ही यहाँ अमरीका में भी सिखाइए तब मैंने वहां रुक कर कैंप लगाने शुरू कर दिए मार्शल आर्ट की सेल्फ़ डिफेंस की ट्रेनिंग के जो आज भी चल रहें हैं। न्यू मैक्सिको में भी हम ये कैम्प लगाते हैं और अपने हमवतनों के साथ -साथ गोरे भी ये सब सिखते हैं वहां पर जो आज तक भी चल रहा है।
जी, उस वक्त में भी दूसरे बच्चों की तरह ही खेलता था लेकिन जब मैंने खेलना शुरू ही किया था तब दो हफ़्ते के बाद ही मेरे कोच सर सरदार निर्मल सिंह जी को लगा की इस स्टूडेंट में कुछ ख़ास बात है तब उन्होंने मुझे केवल दो हफ़्ते के बाद ही अस्सिस्टेंट इंस्ट्रक्टर लगा दिया था कराटे क्लास में। इस तरह से आप कह सकती हैं कि मैं दिनों में ही तरक्की करके 4 महीने के बाद ही कोच बन गया था। इसके पीछे मेरी ख़ास बात यह थी कि मैं जब भी कोई चीज़ सीखता था तब उसको मॉडिफाई उसी वक्त कर लेता था। इस पर मेरे कोच भी कहते थे की जो मैंने आज तक नहीं किया वो तुमने कर दिया। मैंने सेल्फ ही यानि कि खुद की मेहनत से ही न जाने कितनी बार अपने कराटे मूव्स में बदलाव किया। एक बार होशियारपुर में हमारी एक मीटिंग थी उसके बाद मैंने पूछा कि यहाँ कोई ऐतिहासिक गुरद्वारा है तब वहां मुझे पता चला कि भाई जोगा सिंह जी का गुरद्वारा था तब मैं वहां गया। उनके ग्रंथी से बात की उनका नाम गोबिंद सिंह था जोकि 27 साल से वहा नौकरी कर रहे थे मैंने उनसे काफी बात की। बातचीत में जब मैंने भाई जोगा सिंह जी का इतिहास जाना चाहा तब पता लगा कि उनका इतिहास तो गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ मिलता था। पेशावर के रहने वाले थे भाई जोगा सिंह। सारा जाने के बाद मैंने गोबिंद सिंह जी से पूछा कि क्या इस पर कोई किताब है तब उन्होंने बताया कि अभी तक किसी ने लिखा नहीं तब मैंने कहा मैं लिखूंगा। ये था पहली किताब लिखने का राज। इसके बाद मैंने अमृतसर आकर पुस्तकालय में उन पर खोज की और इसके बाद उन पर पहली किताब लिखी। आपको जान कर हैरानी होगी कि उस किताब को लिखने के लिए मैंने अपने पिगी बैंक को तोड़ कर पैसे का अरैंजमेंट किया था। नम्बरदार भगत सिंह जो कि मेरे दादा जी थे वो हम सब बच्चों को हर रोज शाम को ऐतिहासिक कहानियां सुनाया करते थे इसलिए मैं कहूँगा कि इतिहास से मुझे लगाव उनकी कहानियों की वजह से हुआ। दूसरी तरफ मेरी माँ भी दोपहर में हम चारों बच्चों के लिए पुरातन जन्म साखिया गुरनानक देव जी का इतिहास पढ़ती थी और हम सब बच्चे सुनते थे। यही वजह रही की पुराने इतिहास से मेरा लगाव बढ़ता ही गया। फिर मैंने अमृतसर के पुस्तकालय में किताबें पढऩी शुरू की। पुरे वल्र्ड की हिस्ट्री को खोजता रहा और पढ़ता रहा। डॉ मंजू इस तरह से ये है मेरी पहली किताब का रहस्य जोकि मैं दसवीं क्लास में लिख चुका था।

अन्तर तो कोई खास नहीं है अलबत्ता शुरू से ही स्कूल में खेल और इतिहास मेरी रूचि के विषय थे लेकिन पढऩे में मैं कोई बहुत अधिक होशियार नहीं था। जब मैं खालसा कॉलेज पहले साल गया ( हसंते हुए कहते हैं ) तब आप कह सकती हैं कि मैं काफी नालायक़ था मेरी मार्कशीट में भी बहुत कम नंबर आये थे। फिर मैंने खुद के दिमाग को समझाया और फिर दिमाग को कंट्रोल करने के बाद उसी खालसा कॉलेज में जिसमें मेरे माक्र्स कम थे वहां गोल्ड मेडेलिस्ट हो कर टॉपर बना। अब मैं कह सकता हूँ कि अगर हम अपने माइंड को कंट्रोल कर के और विलपावर को स्ट्रांग कर के जीरो से टॉप पर जा सकते हैं। इसी लिए तब से लेकर आज तक मुझमें कोई बदलाव नहीं आया। आज भी उसी थ्योरी को अपना कर सब काम खुद ही करता हूँ। इसी लिए अब पीएचडी भी पूरी कर ली। मेरा मानना है पढ़ाई आप किसी भी उम्र में कर सकते हैं अगर लगन है तब।
मेरी ग्रेजुएशन गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर के खालसा कॉलेज से थी साथ ही मैंने कम्प्यूटर एप्लीकेशन का डिप्लोमा भी किया था जिसमें खालसा कॉलेज का मैं गोल्डमेडलिस्ट टॉपर था। उसके बाद वल्र्ड हिस्ट्री में मास्टर्स करने का मन हुआ तब पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में एडमिशन लिया। पहला साल तो मैंने खूब पढ़ाई की। माक्र्स भी अच्छे आये लेकिन सेकंड ईयर में हालात ऐसे हो गए कि न ही मैंने सेकंड ईयर या फाइनल ईयर की कोई बुक ली और न ही सारा साल कोई पढ़ाई की। जब एग्जाम पास आये तब चंडीगढ़ गया और हॉस्टल में रह कर शाम को सोचा अब क्या करू सुबह तो एग्जाम है। मैंने तो कुछ पढ़ा भी नहीं न ही कोई बुक खरीदी पूरा साल लेकिन फिर एक बार मैंने अपने माइंड को सेट किया और सुबह हुई एग्जाम में बैठा जा कर खाली हाथ पैन लेकर। तब दस प्रश्न में से पाँच करने थे। मैंने सभी को पढ़ा और पाँच प्रश्न को सेलेक्ट कर लिया कि ये लिखूंगा। फिर सभी प्रश्न के उत्तर मैंने अपने पिछले पढ़े हुए वल्र्ड हिस्ट्री को याद करते हुए लिख दिए। सभी प्रश्न के उत्तर उन्हीं में से याद करते हुए लिखता गया। सभी एग्जाम इसी तरह से देता गया और जब रिजल्ट आया तो आप हैरान होंगे की मैं हाई सेकंड क्लास से पास हो गया। बाबा नथा सिंह मेरे अमृतसर के प्रोफ़ेसर भी कहते थे कि पहले साल तो तुम पढ़े थे लेकिन सेकंड ईयर तो तुमने किताब भी नहीं उठाई फिर पास कैसे हुए। आप कह सकती हैं ये भी विलपॉवर ही है कि बिना तैयारी भी आप बहुत कुछ कर सकते हैं। जैसे कि 1997 में मैं जब अमरीका गया तो वहां मेरे एक स्टूडेंट डॉ टीना के चार बच्चे आते थे वो नूयार्क सिटी में मैराथन दौड़ते थे 26 मील। उन्होंने मुझसे कहा कि आप वेल बिल्ड हैं तो आप मैराथन दौड़े। मैंने कहा इतनी लम्बी रेस मैं कैसे दौड़ सकता हूँ तब उन्होंने कहा एक कोशिश करते हैं वीकेंड पर मेरे साथ आओ। मैं गया उनके साथ उन्होंने कहा यहाँ से लेकर आना और जाना 4 मील का है। आओ साथ में दौड़ते हैं। हैरान होंगे आप जान कर कि मेरी स्पीड़ इतनी थी कि मैं 4 मील दौड़ कर वापिस आ गया और उन्होंने तब तक केवल डेढ़ मील ही किया था। तब उन्होंने कहा कि आपकी स्पीड़ अच्छी है तब मैंने बिना किसी तैयारी के न्यूयॉर्क का 26 मील मैराथन का सब से बेस्ट टाइम निकला था। इसी को माइंड की विलपॉवर कहते हैं जिस से आप कभी भी कुछ भी कर सकते हैं।

तकऱीबन हर साल मैं भारत आता था 2011 में मेरे पिता जी के जन्मदिन की पार्टी रखी थी रेस्टोरेंट में। तब उन्होंने कहा कि पार्टी को छोड़ो और स्कूल गुरु रामदास सीनियर सेकेंडरी स्कूल में जाओ जहां वो पढ़ते थे और मैं वहां पर बाद में टीचर लगा था। उन्होंने कहा कि वहां के एक या दो बच्चों के स्कूल की फीस की जिम्मेदारी ले कर उनको एक साल के लिए पढ़ा दो। जिस दिन मैं उस स्कूल में गया साथ में मेरी माता जी भी मेरे साथ थी। उस दिन उस स्कूल की एडमिशन का आखरी दिन था। वहां मेरे सभी साथी ही थे क्योंकि मैं वहां पढ़ाता रहा था। मेरी स्कूल फीस स्पोंसरशिप की बात सुन कर वो बड़े खुश हुए और क्लास टीचर को बोला तो वो क्लास में से आठ बच्चों की लिस्ट लेकर आ गई तो प्रिंसिपल ने मुझको कहा कि आप देख ले इनमें से कौन से एक या दो बच्चों को आप स्पोंसर करना चाहते हैं। उस दिन अप्लीकेशन लेकर काफी पैरेंट्स आये थे। कुछ बच्चों की सिर्फ बहन थी। कइयों के पिता नहीं थे और कइयों की माता। कइयों ने कहा की हाफ फीस अभी ले लो बाकि बाद में दे देंगे तब मैंने प्रिंसिपल को कहा कि सभी की एप्लीकेशन ले लो बाकि फिर देखते हैं। तब करते-करते चौबीस स्टूडेंट की अप्लीकेशन आ गई तब वो कहने लगे की सब पेरेंट्स बाहर बैठे और मुझसे पूछा अब क्या करना है। तब मैंने अपने माइंड को बनाया और प्रिंसिपल को कहा कि मैं सभी बच्चों की एक साल नहीं बल्कि पुरे 12 वी तक की फीस दूंगा। छटी क्लास से बारहवीं तक दूंगा। उनकी यूनिफार्म कापी किताबें भी दिलवाये इन सब खर्चों के लिए न्यूयोर्क जा कर मुझको एक और नौकरी करनी पड़ी ताकि ये सब ख़र्चे मैं पुरे संभाल सकूँ।
The Epic Battle of Saragarhi लिखने का ख्याल स्कूल लाइफ से ही दिमाग में था। क्योंकि इस वल्र्ड फेमस बैटल का यादगार गुरद्वारा अमृतसर में गोल्डन टेम्पल के पास ही है। जोकि जलियांवाला बाग के आगे आता है कोतवाली के पास। जब स्कूल आते – जाते हुए हर रोज वहां से गुजरता था तो गुरद्वारें का ग्रंथी वहां प्रकाश करके सीसे का दरवाजा बंद करके चला जाता था और शाम को आता था। इसको देख कर मैंने एक दिन उनसे पूछ लिया कि इधर रौनक क्यों नहीं होती तब उन्होंने कहा कि यहाँ लोग नहीं आते। इस लिए मैं यहाँ आता हूँ खोल कर रोशनी करके लॉक कर के चला जाता हूँ फिर शाम को आ कर बंद करके चला जाता हूँ। मेरी ड्यूटी इसी लिए दरबार साहेब में लगी है। मैंने फिर दरबार साहब के मैनेजर से इजाज़त लेकर गतका और कराटे मार्शल आर्ट की क्लास वहां उस गुरुघर में शुरू कर दी। देखते ही देखते 150 बच्चे वहां आने लगे और रौनक ही रौनक होने लगी। फिर वहां हमने साल में तीन प्रोग्राम करवाने शुरू कर दिए। और 12 सितम्बर को सारागढ़ी दिवस भी मनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सारागढ़ी पर आर्टिकल भी लिखने शुरू कर दिए और यही सिलसिला आगे -आगे चलता रहा। फिर कुछ पुराने विद्वानों ने कहा कि 1997 में सारागढ़ी बेटल के 100 साल हो जाएंगे तब उन्होंने कहा कि क्यों ना उनके परिवारों को खोजना चाहिए तब मैंने फ़ौज की मदद से जोकि बटालियन youth रेजीमेंट सिख थी वहां से 110 साल पुराना रिकॉर्ड खोज कर उनको खोजना शुरू कर दिया। आप हैरान होगी जान कर कि लगभग 8 महीने में 21 परिवारों में से हमने 19 परिवारों को खोज निकला। उन सभी को वहां पर बुला कर मान सम्मान दिलवाया गया। फिर उसके बाद मैं अमरीका चला गया लेकिन उन सबसे राफ्ता बना रहा। फिर इस पर किताब भी लिखी। ब्रिटिश आर्मी से भी खोज ली और आज तो आपको पता ही है कि उस पर भारत में ‘केसरी’ फिल्म में बन चुकी है जिसमें अभिनय अक्षय कुमार ने किया है। इस पुस्तक के भी सात एडिशन आ चुके हैं। खुशी की बात ये है कि इस साल हमने बाकि बचे दोनों परिवारों को भी खोज लिया है।

हमने अमरीका में भारत और पाकिस्तान की एक ऑर्गनिज़शन बनाई है। जब करतारपुर कॉरिडोर खुलना था तब न्यू यॉर्क में दोनों भारत और पाकिस्तान का साँझा इवेंट हुआ था। दोनों तरफ के समुदायों का इसमें दोनों तरफ के कुछ लोगो ने स्पीच भी दी थी तब उस मौके पर वहां मुझको भी बोलने का मौका मिला था। तब मेरा भाषण सुनने के बाद पाकिस्तान कम्यूनिटी के नेता मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि हमने सब को सुना लेकिन आपकी बात ही अलग है क्यों न हम सब मिल कर पीस का एक ग्रुप बनाये और इस मुहीम को आगे ले कर चले क्योंकि हमारे पुराने दोनों तरफ के पंजाब की संस्कृति तो एक ही है। तब हमने मिल कर एक ग्रुप बनाया जिसका नाम रखा साँझा पंजाब। लेकिन बाद में कुछ उसको साड्डा साँझा पंजाब कहने लगे लेकिन उसका असली नाम साँझा पंजाब ही है। मैं आपको बताता हूँ डॉ चौधरी इसके पीछे की कहानी और भी दिलचस्प है। हमें नहीं पता था कि जो व्यक्ति पाकिस्तान की तरफ से फाउंडर है उनका नाम हैं लम्बरदार सैयद शाह। तब बात ये हुई कि मेरे परनाना जी वहीं से थे जोकि 1947 में पाकिस्तान से भारत आये थे। वहां उनके नाम पर एक गाँव का नाम आज भी है जिसका नाम है चक गुरदित और इसी नाम का एक रेलवे स्टेशन का नाम भी उन्हीं के नाम साहूकार गुरदित सिंह शाह पर है। ये सैयद शाह साहब उसी गाव के लम्बरदार है। जब उन्होंने अपने गाँव की कहानी बताई तब मैंने कहा कि वो तो मेरे परनाना जी थे तब उनको बड़ी हैरानी हुई और अपने पिताजी से पूछा तब उन्होंने पूरा इतिहास बता दिया कि उनके परदादा और मेरे परनाना आपस में दोस्त थे। तब देखिये ये दोस्ती तीन पीढिय़ों के बाद फिर से मिली अचानक ही। यही हमारी फाउंडेशन का मुख्य हिस्सा बना। इसमें हम क्या करते हैं कि दोनों तरफ के लोग एक साथ इकठे होते हैं। सांस्कृतिक और शांति के प्रोग्राम होते हैं न्यूयार्क में। पंजाबी भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं। बच्चो के प्रोग्राम होते हैं। अपनी माँ बोली और पंजाबी पहनावे को बढ़ावा देते हैं। अब जल्द ही हम भारत में भी इसी प्रोग्राम को आरम्भ करने वाले हैं। यहाँ हमारे तीन डायरेक्टर हैं लेकिन मुख्यतया कमलजीत कौर गिल जी हमारे भारत की इवेंट संभालती हैं। पाकिस्तान में भी इस प्रोग्राम को हम ही जल्द शुरू करेंगे।

देखिये हक़ीक़त में तो भारत-पाकिस्तान एक ही मुल्क था। इसमें सियासतदानों ने अपने स्वार्थ के चलते विभाजन करवा लिया। गोरों ने हमें बाट दिया लेकिन हक़ीक़त में आज भी वो लोग हमारे जैसे ही हैं। वो इधर आये या हम उधर जाये एक दुसरे से प्यार महोबत से ही मिलते हैं राजनीति से अलग होकर। क्योंकि जब सभ्यचार की बात आती है तब उसमें कोई मज़हब नहीं आता वो चाहे हिन्दू हो ,सिख हो या मुसलमान या क्रिस्चन कोई भी हो। वहां के सिख समुदाय से भी मैं मिलता रहता हूँ। लाहौर की यूनिवर्सिटी में मेरा लेक्चर भी हुआ था। सभी इधर भी और उधर भी बड़े प्यार से मिलते हैं। जब मैं उधर गया तब मुलतान से और सिन्ध से कुछ हिन्दू परिवार भी गुरद्वारे में आये थे वो सभी बड़े प्यार से मिलते हैं तब आप ऐसे कह सकते हैं कि भले ही सरहदों की दूरियां हैं लेकिन दिलों की करीबी अभी भी बाकी है।
डॉ मंजू वहां पर सबसे बड़ी ऑर्गनिज़शन है ‘सिख्स इन अमेरिकाÓ जिसके तहत हम पुरे अमेरिका में कैंप लगाते हैं। बच्चो के इवेंट होते हैं सेल्फ डिफेन्स के। सभी बच्चो को इतिहास से जुड़ाव रखवाने के लिए वहां के प्रोफ़ेसर्स को हम बुलवाते हैं ताकि बच्चो से वो सवाल-जवाब करते रहे और बच्चो के ज्ञान में इजाफा होता रहे। न्यू जर्सी में मैराथन करवाते हैं। बैसाखी पर इवेंट करवाते हैं और सितम्बर अक्टूबर में भी रेस करवाते हैं। ऐसे कई और इवेंट भी करते हैं। सबसे अधिक खुशी होती है ये सोच कर कि दूसरे मुल्क में अपने देश भारत का नाम ऊंचा रखना बड़ा सुकून देता है। न्यू यॉर्क सिटी मैराथन में लगभग 100 देशों के 80 ,000 तक प्रतियोगी भाग लेते हैं। तब वहां हम अपनी ऑरेंज रंग की पगड़ी पहन कर टीशर्ट पहने होते हैं जिस पर लिखा होता है Sikhs in america and proud to be sikhs. 1952 से ये रेस वहां पर होती है और रेस के बाद इतने सारे प्रतियोगियों में से वो 7 या 8 लोगो को चुन कर न्यू यॉर्क सिटी मैराथन क्लब एक पत्रिका निकलता है हर साल। 1952 से लेकर आज तक उसमें एक ही भारतीय का इंटरव्यू हुआ था 2004 में और वो मैं था। ये भी बड़ा सम्मान रहा जिसने मेरी और मेरे देश भारत की और भी अधिक पहचान बढ़ाई।

देखिये 9 / 11 के बाद अमरीका में मिस आइडेंटिटी की वजह से सिख समुदाय को भी काफी कुछ झेलना पड़ता रहा। यही मुख्य कारण था कि 2003 में मैंने सिख्स इन अमेरिका ऑर्गनिज़शन बनाई थी और हमारा 50 -60 लोगो का ग्रुप पगड़ी पहन कर न्यू यॉर्क सिटी मैराथन दौड़ता था ताकि सभी को पता चल सके कि सिख कौन हैं। इस मैराथन से भी हमारे समुदाय को काफी पहचान मिली क्योंकि वहां 80,000 लोग हमें देखते थे कभी अखबारों में, कभी टीवी पर। न्यू यॉर्क टाइम्स के फ्रंट पेज पर मेरी फोटो भी लग चुकी है। कई इंग्लिश न्यूज़ चैनेल्स ने मेरा इंटरव्यू भी लिया। फिर लोगो ने पहचाना शुरू किया कि आप भारत से आये सिख हो Mr. Singh न कि अफगानिस्तान से आये हुए । इस तरह से हमने लोगो के बीच जा कर अपने बारे में बताया कि भारतीय सिख कौन होते हैं और बाकि दूसरे लोग कौन होते हैं जिससे अपनी पहचान बनाए रखने में हमें काफी मदद मिली। डॉ. राजवंत सिंह हमारे एक दोस्त हैं उन्होंने हाल ही में गुरु नानकदेव जी पर एक फिल्म भी बनाई है। सभी पढ़े -लिखे लोगो को पता है कि सिख कौन हैं बस कुछ कम पढ़े लिखे या अनपढ़ लुटेरे लोग जो मैक्सिको के या स्पेन के कुछ अफ्रीकन वो ऐसी हरकते करते हैं पढ़ा लिखा अमरीकन ऐसा काम कभी नहीं करता।