मेरा अपना अनुभव है कि “कहानी” अपने आप मे एक भाषा है, जो अलग अलग भाषाओं को बोलने वाले लोगों को जोड़ देती है
नीरज कुमार मिश्रा
लेखक, निर्माता, निर्देशक
संस्थापक: अनिरति फिल्म्स
फिल्म: सामानांतर (The Parallel)
६९वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
सर्वश्रेष्ठ मैथिली फिल्म
Pics by Priyanshu Rajguru
सिनेमा से आपका नाता कितना पुराना है।आपको कब यह एहसास हुआ कि सिनेमा ही आपकी पहचान है और सिनेमा ही आपका करियर है?
कह सकते हैं कि बचपन से, उस ज़माने में सिंगल थिएटर का दौर था, टेलीविज़न भी दूरदर्शन तक ही सिमित था। बड़े अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, राजेश खन्ना… जब इनकी फिल्में लगती थी, एक त्यौहार जैसा माहौल हो जाता था, और खासकर संयुक्त परिवारों में इसके उत्साह कि सीमा अलग ही होती थी। पर उस समय सिनेमा मेरे लिए सिर्फ देखने और अभिनेताओं कि नक़ल तक ही सिमित था। मैं उनके संवादों को याद करके उन्हें घरवालों के बीच सुनाया करता था। उस वक़्त उम्र में बहुत ही छोटा था, तो लोगों और भी मज़ा आता था, मैं उनके लिए एक तरह से इन-हाउस कॉमेडियन था। पर उस समय कभी इसे करियर बनाने का सोचा भी नहीं था। एक दौर वो भी था जब मैं ठीक-ठाक क्रिकेट खेल लिया करता था, तो थोड़ी इच्छा थी कि क्रिकेट में कुछ बेहतर प्रयास किया जाए, पर घरवालों को ये कभी पसंद नहीं था; घरवाले चाहते थे कि मैं इंजीनियर बन जाऊं, पर मेरा रुझान डिफेन्स सर्विसेज कि तरफ ज़्यादा था, और मैंने कई UPSC-CDSE के लिखित परीक्षाओं में भी पास हुआ, पर हर बार इंटरव्यू में reject कर दिया गया, और ये मेरे साथ एक नहीं बल्कि तीन-तीन बार लगातार हुआ।फिर अचानक से दिल्ली में ही क्विज मास्टर सिद्धार्थ बासु के केबीसी सीजन १ की रिसर्च टीम को ज्वाइन कर लिया, और यहाँ से मीडिया के क्षेत्र में मुझे एंट्री मिली। फिर दिल्ली में लगभग ४ साल काम करने के बाद मुंबई आ गया, और फिक्शन शोज़ करना शुरू किया। यहाँ मुझे पहली बार शार्ट फिल्म्स के बारे में पता चला। क्योंकि मैं किसी फिल्म स्कूल से नहीं हूँ, तो खुद से फिल्म लेखन और निर्देशन की पढ़ाई करने लगा, और कुछ समय बाद मैंने पहली शार्ट फिल्म बनाई, in 2006; और यहीं मुझे पहली बार अहसास हुआ, कि शायद मैं सही रास्ते पर हूँ। अब लक्ष्य स्पष्ट है, 22 साल का अनुभव है, तैयारी है, स्क्रिप्ट्स हैं, और अब नेशनल फिल्म अवार्ड्स से मिली एक नयी पहचान भी है :), बस अब बहुत सारे संसाधन और फाइनेंस चाहिए ताकि आगे भी बड़ी और बेहतर फिल्में बनाता रहूँ। नेशनल अवार्ड एक बहुत बड़ा सम्मान है, और इसे मैं एक नयी शुरुआत की तरह देख रहा हूँ, जिसने मेरी ज़िम्मेदारियाँ और भी बढ़ा दी है।
अपने प्रारंभिक संघर्ष से “समानांतर” फिल्म के निर्माण और निर्देशन तक आपका सफ़र कैसा रहा। बॉलीवुड ने आपकी प्रतिभा को किस तरह परखा।इस सफ़र में ऐसी कौन सी फ़िल्म रही जिसने आपको इंडस्ट्री में स्थापित किया?
किसी ने ख़ूब कहा है, वक़्त से पहले हादसों से लड़ा हूँ, मैं अपनी उम्र से कई साल बड़ा हूँ… जीवन में संघर्ष तो रहे हैं, क्योंकि मैं हमेशा पैसे से ज्यादा काम की विशिष्टता के पीछे भागा; पैसे भी कमाएं ताकि उन सपनों को देखने की हिम्मत बानी रहे। मेरे संघर्ष का सबसे बड़ा साथी टेलीविज़न था, जिसने हमेशा मुझे मैदान में डटे रहने का हौसला दिया, हर तरह से। शुरुआत में, मैं टेलीविज़न शोज़ करता था, और साथ ही ख़ुद की सेविंग्स से शार्ट फिल्म्स भी बनाता रहता था। क्योंकि जो भी सीखा है या किया है वो ख़ुद से सीख कर किया है… लोगों का विश्वास यक़ीनन कम था, सहयोग ना के बराबर था, क्योंकि इंडस्ट्री में ना कोई पहचान थी और ना कोई पारिवारिक आधार… पर धीरे-धीरे लोगों को यकीन होने लगा। कार्य क्षेत्र का ज्ञान, और लक्ष्य के लिए अनवरत प्रयास, और उसके परिणामस्वरूप मिली सफलताएँ; जब ये सब एक साथ दिखाई देने लगे, तो लोगों का विश्वास अपने आप बढ़ने लगता है। इस फिल्म को बनाने में भी बहुत संघर्ष झेलना पड़ा था, वो भी अपने आप एक अनोखी कहानी है, कभी पर्दे पे ज़रूर दिखाऊंगा।
आप सिनेमा की विभिन्न विधाओं में सक्रिय हैं। आप निर्माता, निर्देशक और लेखक हैं। इनमें से कौन सी विधा आपको सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण लगती है?
जहां तक मेरी समझ है, सबसे चुनौती का काम है लिखना, एक लेखक जब कहानी की शुरुआत करता है तो उसके सामने एक खाली पन्ना होता है.. कोई संदर्भ बिंदु नहीं, फिर जब उन पन्नों पर शब्द उकेरे जाते हैं तो वही लेखन सब के लिए एक मार्ग-दर्शक का स्वरुप ले लेता है, चाहे वो निर्देशक हो, या अभिनेता, या निर्माता। पर इसका मतलब ये नहीं है कि बाकी के काम चुनौतिपूर्ण नहीं हैं, एक निर्देशक भी उन पन्नों को परदे पर जीवंत करता है। एक निर्माता उस कहानी और उस कहानी के निर्देशक में अपना विश्वास दिखाते हुए अपने अर्थ और संसाधनों को सामने रखता है। मेरी समझ से एक लेखक, एक निर्माता और एक निर्देशक.. एक फिल्म के लिए लाक्षणिक तौर पे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह होते हैं; ये अलग बात है, बल्कि विडंबना है, कि अंत में सारा श्रेय और पैसे एक अभिनेता लेकर चला जाता है.. हाहाहाहा।
मुझे बाग़ी 2 से पहली बार पहचान मिली, वो मेरी पहली कमर्शियल फिल्म थी, बतौर लेखक; क्योंकि फिल्म बहुत बड़ी हिट थी, तो लोगों के अंदर मेरे लिए एक नया विश्वास जागा, और उस विश्वास ने मुझे एक नयी पहचान दी।
आप अनिरती फ़िल्म के संस्थापक हैं। ऐसी कौन सी विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य प्रोडक्शन्स की तुलना में अलग पहचान देती हैं?
‘समानांतर’ ‘अनिरति फिल्म्स’ का पहला प्रोडक्शन है; हमारी एक विनम्र शुरुआत। हमारे लिए सिर्फ और सिर्फ कहानी और उसके साथ सीरियस अभिनेता और तकनीशियन, यही हमारी पहली प्राथमिकता है। जब हमने शुरुआत की थी, तो हमें ना तो परिणाम की अपेक्षा थी और ना ही उसका अंदेशा; बस एक प्रयास था कि जो भी करें, जैसे भी करें, अच्छा करें और नया करें। और यहीं हमारा मूलभूत सिद्धांत है। जब हम फिल्म यानी ऑडियो-विज़ुअल स्टोरीटेलिंग की बात करते हैं, तो उसमें अच्छा ऑडियो, अच्छे विज़ुअल्स और अच्छी स्टोरी; इन तीनों को सबसे ज्यादा महत्व देना चाहिए। कला के व्यवसाय में कला से कोई समझौता नहीं, ये हमारा सिद्धांत है, उम्मीद करते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री हमारे इस दृढ़ विश्वास को और भी मजबूत करेगी। हमारी फिल्म अभी पर्दे तक नहीं पहुँची है, पर उम्मीद है जल्द ही ये फिल्म आम लोगों बीच होगी।
सिनेमा को अक्सर दो नज़रिये से देखा जाता है कलात्मक और कमर्शियल। क्या कलात्मक फिल्में कमर्शियली सफल नहीं हो सकती।एक फिल्ममेकर के रूप में आप कमर्शियल और कलात्मक के अंतर को किस नज़रिए से देखते है?
भाग्यवश ये दायरा धीरे-धीरे कम हो रहा है; अगर बॉक्स ऑफिस के हालिया ट्रैक रिकॉर्ड पर नजर डाली जाए तो बहुत सारी ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने बिना किसी खास चेहरे या स्टूडियो बैक अप के अच्छा रिटर्न दिया है। अगर समीक्षा की जाए तो ऐसे कहानियों के सफलता को कुछ इस तरह से मापा जा सकता है; ऐसा कुछ, जो नया हो, अनोखा हो और समकालीन दर्शकों की मानसिकता को गुदगुदाए। इसके लिए डिजिटल क्रांति को भी श्रेय दिया जा सकता है; दर्शक धीरे धीरे बदल रहे हैं, उनका ध्यान चेहरे से ज़्यादा कहानी के नयेपन पर केंद्रित होता है; साथ ही दुनिया का दायरा भी छोटा होता जा रहा है.. अच्छे से कहीं जाने वाली अच्छी कहानियों के दौर ने कमर्शियल और कलात्मक फिल्मों के बीच के फासले को कम कर दिया है।
आपने मैथिली भाषा मे एक सार्थक फ़िल्म “समानांतर” का निर्माण, निर्देशन और लेखन किया है। इसकी विषयवस्तु रीजनल फ़िल्म के दायरे से हट कर बहुत विशाल है।आपने इसे मैथिली भाषा मे बनाने का निर्णय क्यों लिया?
‘कर्म’, यहीं हमारी फिल्म ‘समानांतर’ का मूल आधार है। हम जैसा करते हैं वैसा ही फल हमें मिलता है, आज इस सिद्धांत और दर्शन से पूरा विश्व भलीभांति अवगत है। ‘कर्म’ हमारी भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं दर्शन का एक अभिन्न अंग है… और हमारा लक्ष्य भी यहीं था कि हम एक ऐसे विषय को चुनें जिससे हर तरह से दर्शक अपने आप को जोड़ सकें। फिर ज़िम्मेदारी आई भाषा चुनने की; हमने मैथिली इसीलिये चुना कि हर कहानी में उस मिट्टी की महक होनी चाहिए, और हमने इस फिल्म की शूटिंग जहाँ की है, उसे ‘मिथिलांचल’ कहते हैं; ‘माता सीता’ और ‘जनक जी’ की पवित्र भूमि, और वहां की भाषा है, ‘मैथिली’। लगभाग 3 करोड़ की आबादी मैथिली भाषा का प्रयोग करती है, और ये आबादी भारत के अलावा विदेशों में भी फैली हुई है। काई बार अच्छी कहानियों से कुछ कम प्रचलित भाषाओं की भी पहचान बनती है, और कई बार एक नई भाषा कहानियों में एक नया रंग डालती है। ‘मैथिली’ मेरी मातृभाषा है, तो भाषा की स्थानीय बारीकियों को उजागर करना मेरे लिए आसान था, और जैसा मेरा अपना अनुभव है कि ‘कहानी’ अपने आप में एक भाषा है, जो अलग-अलग भाषाओं को बोलने वाले लोगों को जोड़ देती है।
“समानांतर” फ़िल्म के प्रतिभाशाली कलाकारों के बारे में जानना चाहेंगे जिन्होंने अपने अपने किरदारों को साकार किया। फ़िल्म के किस कलाकार से आप सर्वाधिक प्रभावित हैं?
ये अपने आप एक मज़ेदार और चुनौती भरा टास्क था, पूरी टीम के लिए। हमारी फिल्म में ज्यादातर ऐसे लोगों ने अभिनय किया है जो शायद पहली बार कैमरे का सामना कर रहे थे, और उनमें से कुछ ने तो अपने जीवन में पहली बार किसी किरदार को निभाया है, जिसमें मेरे अपने पिता भी शामिल हैं, जो एक सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी हैं, उन्होंने पहले कभी अभिनय नहीं किया। मेरे एक मित्र हैं जिनके पिता जी जो सेवानिवृत्त वकील हैं, उन्होंने भी इस फिल्म में बहुत ही अहम भूमिका निभायी है, और बहुत ही अच्छे से निभायी है; और ऐसे ही कितने अनजान चेहरों ने इस फिल्म में काम किया है। वैसे तो बहुत सारे नाम हैं, अनुराग ठाकुर, नरेंद्र कुमार टुनटुन, प्रियांशु राजगुरु, अभिषेक बाजपेई, कुंदन कुमार, रोहित झा.. इन सबने अच्छा काम किया है; पर एक नाम जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है, शाश्वत आनंद.. कुछ लोग अभिनय करते हैं, पर कुछ लोगों का अभिनय इतना सहज होता है, कि पर्दे की दुनिया और दर्शकों की दुनिया एकाकार हो जाती है; शाश्वत कुछ ऐसा ही है। मैं उम्मीद करता हूं कि इस फिल्म में काम करने वाले हर कलाकार की अपनी एक नई पहचान बने।
सिनेमा एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो लोगों की सोच को बदल सकता है। हर फ़िल्म में एक मैसेज होता है।आप अपनी फिल्म “ समानांतर” से क्या मैसेज देना चाहते हैं?
मेरी फिल्म का बड़ा ही सीधा और सटीक संदेश है, और वो यह है कि, अगर आप कोई बुरा कर्म करते हैं, तो उसका हिसाब आज नहीं तो कल देना भी पड़ता है, और भोगना ही पड़ता है; और उसके परिणाम का माध्यम कोई भी और कुछ भी हो सकता है। बुरे कर्म के प्रभाव से कोई नहीं बचा है, इसलिए कुछ गलत करने से पहले हम सब को हज़ार बार सोचना चाहिए।
क्रिएटिव डायरेक्टर के रूप में भी बॉलीवुड में आपकी सशक्त पहचान है। इस क्षेत्र मे आपकी उपलब्धियों के बारे में जानना चाहेंगे?
जैसा कि मैंने पहले भी बताया, मेरी शुरुआत टेलीविजन से ही हुई थी। और मैंने लगभग हर विभाग में कभी ना कभी काम किया है, चाहे वो रिसर्च हो, या प्रोडक्शन हो, या क्रिएटिव डिपार्टमेंट हो या कंटेंट डेवलपमेंट, या चैनल प्रोग्रामिंग, मैंने हर जगह काम किया है। बतौर क्रिएटिव डायरेक्टर भी मुझे लगभग हर चैनल के साथ काम करने का मौका मिला है, वैसे तो मैंने अलग-अलग पद पर रहते हुए तकरीबन 25 से ज्यादा शोज़ किए हैं, लेकिन बतौर क्रिएटिव डायरेक्टर और शो-रनर इश्क आज कल, जमाई राजा, वारिस, रक्षक, काली, लाडो, अदालत.. ये प्रमुख शोज़ रहे हैं। मेरा काम ही मेरी पढ़ाई थी, और आज भी है, जैसा कि मैंने पहले बताया कि, मैं किसी फिल्म स्कूल से नहीं हूं इसलिए मुझे हर विभाग में रहकर उसकी बारीकियों और तकनीकी पक्ष को समझना जरूरी था; थ्योरी तो किताबों से सीखी जा सकती है, पर काम करते हुए सीखना मेरा एक व्यावहारिक और जागरूक अभ्यास था, और ये अभ्यास अब तक टेलीविज़न पर 2000 एपिसोड से अधिक के आँकड़े को पार कर चुका है।
वेब सिरीज़ के क्षेत्र में भी आपका एक स्थापित नाम है। इन दिनों वेब सिरीज़ में निम्नस्तरीय कहानियां और अश्लील संवादों का प्रयोग हो रहा है इससे युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है। मानवीय मूल्यों का पतन करने वाली वेब सिरीज़ के बारे मे आप क्या कहना चाहेंगे?
कलात्मक औचित्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक ऐसा बाज़ार पनप चुका है, जहाँ मानवता और मर्यादा का ज़िक्र सबसे अंत में किया जाता है। मेरी जितनी समझ है, उस हिसाब कहानियों में अनावश्यक अश्लील संवाद और दृश्यों का सहारा लेना बैसाखी पकड़ने के समान है। हमें अपना सामाजिक दायित्व कभी नहीं भूलना चाहिए, और हमें ये ज़रूर सोचना चाहिए कि इन कहानियों का प्रभाव हमारे आस-पास के युवाओं पर किस तरह से पड़ेगा। हर ग़लत उद्देश्य का नतीजा ग़लत ही होता है; उम्मीद है इनका भी एक saturation point आएगा, और इस तरह की सोच अपने आप खत्म हो जाएगी, या तो हमारा समाज और दर्शक ही इन्हें पूर्ण रूप से बहिष्कृत कर देंगे। हर तरह की कहानी कहने की आज़ादी होनी चाहिए, पर हमें साथ ही अपने सामाजिक और नैतिक दायित्वों को भी कभी नहीं भूलना चाहिए; कम से कम, मेरी कोशिश तो यही रहती है।
आपकी फ़िल्म “ समानांतर” को मिले राष्ट्रीय अवार्ड का श्रेय आप किसे
देना चाहेंगे?
इसका श्रेय जाता है हमारे उस ‘साहस’ को जिसे हमारी टीम ने एक साथ पहला कदम उठाते वक्त दिखाया था; इसका श्रेय जाता है मेरे माता-पिता, परिवार के उन सदस्यों और दोस्तों को जिन्होंने किसी भी परिस्थिति में मुझ पर अपना धैर्य और विश्वास नहीं खोया; और अंत में इसका श्रेय जाता है हमारी इस फिल्म इंडस्ट्री को जो किसी ना किसी रूप में मेरी हर लड़ाई में हमेशा मेरे साथ खड़ी रही।