गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश उत्सव आज भी उतना ही प्रासंगिक है क्यूंकि आज भी हमारे समाज में बराबरी, निडरता, सत्यनिष्ठा और नम्रता की उतनी ही ज़रुरत है जितनी मुग़ल काल में थी।
डॉ.परनीत जग्गी
प्रोफेसर, अंग्रेजी
डॉ भीमराव अंबेडकर राजकीय महाविद्यालय
श्री गंगानगर
Parneet49@gmail.com
डॉ परनीत जग्गी राजस्थान में अंग्रेज़ी की प्रोफेसर,लेखक, कवयित्री, उपन्यासकार, आलोचक और उत्कृष्ट संपादक हैं।इनके 7 काव्य संग्रह और 7 अन्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका ऐतिहासिक उपन्यास “ द कॉल ऑफ द सिटाडेल” पाठकों और आलोचकों द्वारा काफी सराहा गया।
अमरीका की प्रसिद्ध पत्रिका “ पोएट्स एंड राइटर्स” में आपका नाम दर्ज है। डेस्टिनी पोएट्स, इंग्लैंड द्वारा “ पोएट ऑफ द ईयर 2019” जैसे कई पुरस्कारों से आप सम्मानित हैं।
धर्म पुरातन काल से ही मानव के जीवन का अटूट हिस्सा रहा है। धर्म के अर्थ भी सभ्यता और समय के साथ बदलते रहे हैं । गुरुओं और ब्रह्मज्ञानिओं की धर्म परिभाषा साधारण सामाजिक मनुष्यों की समझ में पूरी तरह शायद ही आई होगी, परन्तु धर्म के ठेकेदारों ने इसकी परिभाषा को अपने हिसाब से घर-घर में प्रचलित किया। इसी परिभाषा के अंतर के चलते आज हम उलझन और विवशता की स्थिति में हैं। हम यही नहीं समझ पाते कि कौन सा धर्म सही या अधिक अनुकूल है।पर अगर धर्म के सही मायने समझ लिए जाएँ तो “कौन सा” शब्द हमारे ज़हन से हट जाएगा और हम केवल धर्म के अंतरीव भाव को महसूस कर पाएंगे ।
सिक्ख धर्म अपने पहले गुरु और प्रचारक के रूप में गुरु नानक को किसी धर्म विशेष के रूप में नहीं देखता बल्कि जगत गुरु और सांझीवालता के प्रकाश के रूप में देखता है।गुरु नानक की ज्योति को अगले नौ गुरु, समाज के उत्थान और अज्ञानता के अँधेरे को मिटाने के लिए चोला धारण करते हैं। गुरु नानक के समय मुग़ल शासक बाबर के हमले पर गुरु साहब ने “बाबरवाणी” उचारकर अत्याचारी हमले की निंदा की थी। दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी के समय तक मुग़ल शासन का जोर और जबर हदें पार कर चुका था, जिस कारण दसम गुरु ने तलवार उठाकर कई युद्ध लड़े, आम जनता को डर और ज़ुल्म से ऊपर उठ कर सर उठाना सिखाया । यह उस समय की आवश्यकता थी, जब हिंदुस्तान की जनता स्वतंत्र जीवन जीने का हक़ खो रही थी। धर्म परिवर्तन, लूट मार, बेइज़्ज़ती , भेद -भाव, छूत-छात, आदि बेड़ियों में आम आदमी जकड़ा जा रहा था।
उस समय मानवता के रहबर , दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने धर्म की परिभाषा को पंडितों और मौलवियों की पोथियों से हटाकर साधारण सामाजिक जीवन पर पूरा उतारा। लाला दौलत राय ने क्या खूब लिखा है , “ जिन शूद्रों की बात को कोई नहीं पूछता , जिन्हे दुत्कारा व फटकारा जाता था, जो ज़िल्लत और ग़ुलामी में जीवन गुज़ार रहे थे, उनको विश्व के योद्धाओं के मुक़ाबिल ला खड़ा करना सिर्फ और सिर्फ श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का ही काम था।”
प्रसिद्ध सिक्ख विद्वान् और दार्शनिक प्रिंसिपल सतबीर सिंह गुरु साहब के बारे में लिखते हैं, “ श्री गुरु गोबिंद सिंह जी में पैगम्बर, रक्षक, संत, कवि, भक्त, कलाकार, सुधारक, रूहानी रहबर, बाँट छकने वाले, विद्वान्, सभी बोलियों के माहिर, जत्थेदार, नीतिकर्ता, जरनैल, संत- सिपाही, परोपकारी, सिद्ध- योगी, उत्तम तीरंदाज़, तलवार के धनी, नम्रता के पुंज, कौम के आगू, घुड़सवार, निशानची, उदासी, निर्वैर, निडर, मज़लूमों के संरक्षक, लेखक तथा अन्य बहुत से गुण मिला सकते हैं।”
ऐसी तेजस्वी और आध्यात्मिक शख्सियत का प्रकाश नौवें पातशाह, श्री गुरु तेग़ बहादुर जी और माता गुजरी जी के गृह में श्री पटना साहिब की पावन धरती पर सन 1666 ई. में हुआ। इस अवसर पर नौवें गुरु स्वयं प्रचार यात्रा पर थे। बाल अवस्था में ही आपकी शूरबीरता और ज़ुल्म न सहने की प्रवृति देखने को मिलती है। आपकी शिक्षा, भाषा ज्ञान, गुरु ग्रन्थ साहिब का अध्ययन, शस्त्र विद्या, घुड़सवारी, तीरंदाज़ी, नेजाबाज़ी, तैराकी, राजनीति विद्या आदि पर बचपन से ही विशेष ध्यान दिया गया।
नौ वर्ष की आयु में ही बालक गोबिंद राय ने अपने पिता को कश्मीरी पंडितों की प्रार्थना पर मज़लूमों की रक्षा के लिए शहादत के लिए प्रेरित किया। धर्म की परिभाषा में यह पहला बदलाव था , जिसमें निडरता और दृढ़ता के संकल्प को स्थापित करना एक बड़ा उद्देश्य था। दिल्ली के चांदनी चौक (गुरुद्वारा सीसगंज साहिब) में नौवें गुरु के धड़ से सीस अलग करने का फरमान मुग़ल बादशाह जहांगीर ने दिया। जिसके पश्चात् दसम पिता ने छोटी आयु में ही सिक्ख कौम की बाग़डोर संभाल कर कमज़ोर जनता को शेर बनाने का काम शुरू किया। गुरु जी की शिक्षा देग और तेग दोनों में बराबर चली। तलवार के साथ- साथ कलम का भी बखूब प्रयोग कर आपने पुराने भ्रमों और जोगियों की अवधारणाओं को खंडित किया।
गुरु गोबिंद सिंह जी संसार में धर्म का जीवंत रूप बनकर उभरे। आपका सम्पूर्ण जीवन धर्म की ही व्याख्या करता है। आपने सब से बड़ी चुनौती सच की शक्ति को उभारने और दृढ़ करने की मानी, और जीवन भर इस ओर प्रगतिशील रहे। इसके लिए आपने बड़े ही सुनियोजित ढंग से नीति बनायी और डरे हुए लोगों को निडर बनाने का प्रशिक्षण आरम्भ किया। गुरु ग्रन्थ साहिब की बाणी के पाठ, कीर्तन , कथा और विचार के साथ सिक्खों के मन और आध्यात्मिक प्रगति पर कार्य करते रहे । दूसरी ओर जबर-ज़ुल्म की परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें रण-नीति, युद्ध-नीति और शक्ति प्रयोग में भी निपुण करना प्रारम्भ किया। गुरु साहिब द्वारा स्थापित श्री पौंटा साहिब और श्री आनंदपुर साहिब बौद्धिक चेतना और आत्मिक जाग्रति के केंद्र बने। आपने स्वयं प्रेम और आग्रह सहित पूरे देश से विद्वानों, कवियों और लेखकों को आमंत्रित किया और उन्हें आदर सहित अपने दरबार में स्थान दिया। आपका दरबार धर्म के गुनी ज्ञानियों से भरा रहता। उस समय में राजाओं और बादशाहों के दरबारों में उन्ही के झूठे सच्चे गुणगान हुआ करते थे, पर आपके दरबार में सब बराबर का दर्जा लेकर केवल परमेश्वर का गुणगान अलग अलग ढंग से , अलग अलग भाषाओँ में करते। आप अपनी निपुण काव्य शैली से कवियों का मार्ग दर्शन करते और श्रेष्ठ साहित्य रचना के लिए प्रेरित करते।यह था आपका धर्म का अनूठा संकल्प।
खालसा द्वारा लड़े गए युद्धों से अहंकारी और अन्यायी मुग़ल साम्राज्य की नींव हिल गयी। गुरु साहिब का खालसा सच पर सदा अटल रहने वाला, अज्ञानता और विकारों का नाश करने वाला, सहज , स्थिर और आनंद की अवस्था में रहने वाला था। जंग के मैदान में लड़ रहा भूखा प्यासा खालसा, लाखों की वैरी फ़ौज से मुक़ाबिल मुट्ठी भर खालसा, जान हथेली पर रख शेर की तरह बहादुरी दिखने वाला खालसा कभी अपनी अवस्था से टूटा नहीं और चढ़दी कला की मिसाल बना रहा। आपका पूरा परिवार आपके इस रूहानी मिशन में आपके साथ डटा रहा। पिता के बाद आपकी माता जी, आपके चारों साहिबज़ादे और हज़ारों सिक्ख अपने देश, कौम और सच की रक्षा करते हुए कुर्बान हुए। इसलिए आपको सरबंसदानी कहकर भी याद किया जाता है।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब को श्री हुज़ूर साहिब, नांदेड़, महाराष्ट्र में सन 1708 ई. में आपने गुरगद्दी सौंपी। इस से पहले आपने नौवें गुरु की बाणी को तलवंडी साबो, बठिंडा में ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित किया और अंतिम रूप देकर इसका प्रसार किया। आपने अपनी बाणी को दसम ग्रन्थ के रूप में सम्पादित किया । सिक्ख कौम को गुरु ग्रन्थ साहिब को जागती ज्योत मानकर शब्द गुरु के अनुसार जीवन जीने का आदेश दिया।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश उत्सव आज भी उतना ही प्रासंगिक है क्यूंकि आज भी हमारे समाज में बराबरी, निडरता, सत्यनिष्ठा और नम्रता की उतनी ही ज़रुरत है जितनी मुग़ल काल में थी। आज भी हमारे बच्चों और युवाओं को धर्म की नयी परिभाषा सीखने की आवश्यकता है जिसमें केवल रीति-रिवाज़, वहम-भ्रम, शब्दों- कथनों से ही धर्म न चलता हो, बल्कि धर्म हमारी सोच और जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा हो। धर्म से हमारे कर्म और चरित्र का निर्माण हो । धर्म हमारे रिश्तों की नींव हो।धर्म हमारे सबसे अधिक काम की चीज़ हो न कि सप्ताह य वर्ष में कोई एक त्यौहार जैसा हो। धर्म से हम बनें, न कि हमसे धर्म। गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन से यदि हम एक भी धर्म की परिभाषा ले पाएं, तो हमारा साहित्य से जुड़ना य प्रकाश पुरब मनाना सफल होगा।